wah rajniti kabhi sakaratmak nahin ho sakti jiski neev sampradayvad par pari ho aur wah samaj kabhi tarakki nahin kar sakta jahan vyakti ki pehchan keval ek vote se adhik na ho. Pilibhit ki ghatna oos unmaad ki shuruaat hai jo sainkron varshon mein panpe composite culture kaa kaal banega.
कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक और अनुवादक. जन्म: 8नवंबर, 1951चम्याणु{सरकाघाट} हि.प्र. कहानी संग्रह: पतलियों और मुहँ के बीच; भिरटी तथा अन्य कहानियाँ; साउथ ब्लाक में गांधी.
उपन्यास: हवेली से बाहर; निर्वासित प्रेतों की जीवनी, तीसरे उपन्यास 'कालाबकरा'की रचना में संलग्न.
आलोचना, साक्षात्कार और विचार: सबसे उदास पंक्तियाँ, महास्वपन का अवसान, शब्दशिल्पी (तीनों प्रकाशनाधीन)
अनुवाद: मार्केज़ का लघु उपन्यास 'कर्नल को कोई नहीं लिखता' तथा दो कहानियां 'लाल गुलाब' और 'अगस्त माह के भूत'. अन्तोन चेखव की 'पच्चीस कहानियां'. फ्रेंज काफ्का का उपन्यास 'मुकदमा'.
साक्षात्कार: बचपन की वे chhaviyan(प्रमोद रंजन के साथ बातचीत पुस्तिका के रूप में).
सम्पादन: प्रेमचंद: 15 आधारचयन कहानियाँ. mobile: 09816656766;
09418886205
email: rajkumarrakesh123@gmail.com
भिरटी तथा अन्य कहानियां एक ही कथा रचनाकार की एक के बाद एक कथा सृष्टियाँ अपनी रूपगत विशिष्टताओं और उनमे अपनाये गये उपकरणों और आख्यान शैलियो मे आपस मे इस कद्र अलग अलग होकर दरअसल एक गहरे रूप से प्रतिबध और कलाकार के सर्जक व्यक्तित्व के लम्बे संघर्ष मे से निकली सान्द्र संलिष्ट समृद्धि को ही कही न कही इंगित कर रही है. राजकुमार राकेश उथले अर्थो मे प्रयोगवादी नही है, तथापि अपने लम्बे लेखकीय कैरियर मे अपनी मूल चिंत्ताओ और सरोकारो को लेकर उनमे अंतरमंथन बहुत है, और बहुत जरुरी और अनिवार्य हो उठने पर ही अत्यंत गहनता और बाराकी के साथ वे रचना के साथ उपस्थित होते है और उसमे रचनागत जरुरतो के तर्काधीन प्रयोग करने का साहस भी करते है. भिरटी तथा अन्य कहानिया का पथ हमे एक साथ नानारंगी विविधता और लेखक की संजीदा सोदेश्यता से पैदा होने वाली अंविति की पह्चान कराता है.
हवेली से बाहर
अपने कलारूप में उपन्यास का स्त्रोत अपनी जनता, अपनी मातृभूमि और अपनी मातृभाषा में है, लेकिन लेखक की गहनता और आंतरिक चेतना, अपनी जातीय अस्मिता से अधिक विस्तृत और महान होती है। स्मृति की अतलऔर अँधेरी गहराईयों से उभरकर आने वाले संकल्प से ही उपन्यास का जन्म होता है। हर कलारूप तभी सार्थक है यदि वह मानवतावादी मूल्यों से जुड़ता हो। स्वाधीन चिंतन , साहचर्य, सत्यान्वेंषण, आदमी की आदमी के बीच समानता और न्यायसंगत व्यवस्था जैसे मानवीय भाव और मूल्य उसे देश के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में स्थापित करते हैं। वह उंच-नीच, सांप्रदायिक वामनस्य और फासीवाद को नकारता है। जहाँ फासीवाद की दृष्टि घृणा और द्वेष को बढ़ाती है, भेदभाव और निरंकुश सत्ता को जन्म देती है, वहीं मानवीय मूल्यों से जुदा कलारूप जनतंत्र का सबसे बड़ा वाहक बनकर उभरता है। 'हवेली से बाहर' के भीतर का जनतंत्र एक सार्थक किस्म के जनवाद की उपज है, तथा सामाजिक जीवन के इन मूल्यों पर खरा उतरता है। 'हवेली से बाहर' ऐसे पात्रों की सृष्टि करता है, जो एकदम समाज के अपने हैं। उसके ठीक बीच में, लेकिन उनके पास समाज को देख पाने की एक भिन्न दृष्टि है, जो अपने आप में ईमानदार भी है और विडंबनात्मक भी तथा इन्हें अन्य लोगों से एक स्तर पर अलगाती भी है। सलमा और कमलकांत जैसे पात्र स्वप्नजीवी होने के साथ-साथ अपनी संकल्पना में एकदम साधारण सामाजिक व्यक्तियों की तरह भी हैं तथा बहुत से सार्थक व व्यापक अर्थों में भिन्न भी। इसीलिए वे उपन्यास के केन्द्रीय पात्र रहते हुए भी, कहीं भी नायिकत्व की महिमा से मंडित होने का आभास नहीं देते, बल्कि एक ऐसी दृष्टि प्रस्तुत करते हैं जिसमें जीवन का एक कठिन संगीत हर समय बजता रहता है। कमलकांत जहाँ एक ओरअपने प्यार के प्रति पूरी ईमानदारी से समर्पित है, वहीं सौन्दर्य के विकास में ख़ुद को कुंठित व एकांगी होने से भी रोकता है। उसके ठीक विपरीत सलमा की उपस्थिति पूरे के पूरे सामाजिक परिदृश्य को एक ओर बेहद परिपक्व और सार्थक बनाती है, तो दूसरी ओर उसे कठ्मुल्लेंपन की जकड़ से मुक्त भी करती है. इन सब स्तिथियों के बीच जीणू जमादार जैसा पात्र भी है, जो जीवन को उसकी पूरी लापरवाही, रोमांच, व्यंगोक्ति, दुश्चिंताओं, शौर्य और अंधविश्वास में शिद्दत के साथ जीता है. 'हवेली से बाहर' के कलारूप की अपनी सार्थकता भी इसी में निहित है कि वह समाज की घोर विडंबनाओं के बीच सिर्फ कला होने की ही प्रतीति नहीं देता बल्कि इसकी गहराई में पैठा यथार्थ एक सार्थक कलारूप में व्यक्त होता है.
साउथ ब्लाक में गांधी
लेखक के लिए एक समूची हताशा से स्वयं को बचाए रखना एक अनिवार्यता की तरह है।आज की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों ने ही इसके लिए विकराल स्थितियां पैदा नहीं की हैं, बल्कि एक यथास्थितिवादी जड़ मुहावरे की तरह इन्हें पक्का करने कोशिशें जारी राखी हुई हैं। वैसे क़ानून और राजनीति भले ही यह आभास देते रहें की वे मानव सभ्यता के लिए ऐसी स्थितियां पैदा किए दे रहे हैं जहाँ हर व्यक्ति संवेदनात्मक और समतामूलक समाज की बात कर सकता हो, किंतु एक व्यापक हताशा से जूझती यह पीढ़ी भली-भाँती जानती है कि सांस्कृतिक परिवर्तन कि सारगर्भित इच्छा और शुरुआत उनके सार्थक रचनात्मक हस्तक्षेप से ही सम्भव है। और 'कहानी' उसके कई कारगर औजारों में से एक है। यह प्रतिरोध संबंधों के बाजारीकरण को रोकता, 'वाणिज्य दिमागों' के विकास के प्रति हस्तक्षेप करता, और अवमूल्यन के पार्टी हमारे अपराधबोध को मर जाने से रोकता है। यह कहानियाँ इन सारे सन्दर्भों के अतिरिक्त अपने इतिहासबोध और बदलती भाषाई संवेदना की तरफ़ भी हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं। इस संकलन की कहानियो में इस संवेदना का बदलाव और विस्तार तीन स्तरों पर चिन्हित किया जा सकता है। 'दिल्ली दरवाजा' व 'मृत कल्पना का शोक गीत' से आगे 'साउथ ब्लाक में गाँधी' और 'याकी पाँच हाथों वाली वह औरत' से होता हुआ 'अदृश्य अवतार और भटकती आत्माएं', 'ई-फार्मिंग के दिनों में प्यार' और 'तथास्तु' जैसी कहानियो में अपने उत्स की ओर अग्रसर है। इसी के साथ समकालीन जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष के बीच इन कहानियो का इतिहास-बोध अंधेरे में सचेत करते किसी नाईट-चौकीदार की तरह आहट देता चलता है।
निर्वासित प्रेतों की जीवनी
पारम्परिक औपन्यासिक 'फार्म' को तोड़ना जितना कठिन है, कलारूप के विकास में शायद उतना ही जरूरी भी है. 'निर्वासित प्रेतों की जीवनी' उसी प्रचलित ढर्रे को बेरहमी से तोड़ता है, जिसके हम आदी हैं. लेकिन यह किसी लम्बे सफ़र के एक जरूरी पड़ाव की तरह है जहाँ जीवन की बेचैनियाँ और सार्थाक्ताओं की तलाश पूरी तरह मौजूद है. यहाँ पर जीवन का आवेग निरंतर जारी है, किसी भी बिंदु पर आकर रुकता नहीं. आज के तमाम उत्तर-आधुनिकी विमर्शों के इस परिवर्तनशील दौर में उपन्यास के 'फार्म' समेत कोई भी ऐसा यथास्थितिवादी विमर्श संभव नहीं रह सकता, जो जीवन के इस आवेग को नकारता हो. नयेपन का येही बोध एक पूरी कौम की ऐतिहासिक परम्पराओं एवं राजनैतिक व सामाजिक अर्थवताओं को सही दिशा में मोड़कर मानवीय जीवन को उत्स की ओर ले जाता है. इन्हीं सब स्थितियों का निरूपण इस नए 'फार्म' को जन्म दे रहा है. दीनू, कैथरीन, संध्या, मीना, माई, सुन्दरलाल, बृजलाल, कन्हैयालाल जैसे सभी व्यक्ति एक भरे-पूरे समाज के बीचोंबीच अपने-अपने स्तर पर निर्वासित प्रेतों का-सा जीवन जी रहे हैं. किन्तु कहानी की यह प्रस्तुति उनमें से किसी एक दृष्टिकोण की मोहताज नहीं रहती, बल्कि उस निरपेक्ष कोण से अन्वेषित है, जो खुद ही नया एवं दुर्लभ है तथा पूरे राष्ट्र की राजनीति की ढलती हुई परम्पराओं और पिछले पांच दशकों के इतिहासबोध को कल्पना, यथार्थ, स्वप्न, संकल्प, फेंटेसी और संपर्क में ढालकर पेश करती है. लेकिन एकांगी वर्णात्मक अनुभव की बजाय यह तलाश भाषा, शिल्प, निर्मिति और संकुचन की अनवरत चलती हुई प्रक्रिया के अंतर्गत संभव हुई है. इसलिए नवनिर्माण के उन्मेष का उदघोष करती है.
महोदय,
ReplyDeleteयह बद-दुआ मत दीजिए।
न जाने ये राजनेता क्या-क्या गुल खिलायेगें।
badduaa nahin apne deshvaasiyon ko mahaz sachet hi kar rahaa hun
ReplyDeleteपीलीभीत
ReplyDeleteन हो पीली
न हो काली
न हो लाल
बस भीत पर
टंगा हो रूमाल।
wah rajniti kabhi sakaratmak nahin ho sakti jiski neev sampradayvad par pari ho aur wah samaj kabhi tarakki nahin kar sakta jahan vyakti ki pehchan keval ek vote se adhik na ho. Pilibhit ki ghatna oos unmaad ki shuruaat hai jo sainkron varshon mein panpe composite culture kaa kaal banega.
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