Thursday, April 23, 2009
बिहार से लौट आने के बाद
बिहार के एक पखवाडे की यात्रा के बाद वापस आकर उस विधा की तलाश कर रहा हूँ जो वहां अर्जित अनुभवों को वाणी दे सके और अभी तक यह एक संभावना है क्योंकि अभी तक तो भीतर काफी कुछ बिखरा पडा है । इतने बिखरावों के बीच विधा की तलाश कितना मुश्किल काम है यह बता पाना मुमकिन ही नहीं लगता।
Sunday, March 29, 2009
अगस्त माह के भूत
गैब्रियल गार्सिया मार्केज़
(अनुवाद: राजकुमार राकेश)
ओरेजो में हम दोपहर से कुछ ही देर पहले पहुंचे थे. रेनेसां कैसल, जिसे वेनजुएला के लेखक मिग्युल औटिरो सिल्वा ने तुस्किन के देहात के एक आदर्श कोने में खरीद रखा है, को तलाश करने में दो से ज्यादा घंटे से ज्यादा का समय गँवा दिया. वह अगस्त माह के आरम्भ में की जलती व आकुलाह्ट भरी दोपहरी थी. गलियां सैलानियों से अटी पड़ी थी, लेकिन उनमें ऐसा कोई व्यक्ति तलाश कर पाना कठिन था जो उस भवन से परिचित हो. कुछ असफल कोशिशों के बाद हम कार में जा बैठे और सफेदे के वृक्षों से घिरी एक सड़क पर चलते हुए शहर से बाहर निकल आए. कैसल को चिन्हे बिना हम चलते जा रहे थे, तभी एक बुजुर्ग महिला हमें उसका ठीक ठीक पता बता दिया. हमें अलविदा कहने से पहले उसने पूछा कि हम वहां केवल दोपहर के भोजन के हमने जवाब दिया कि हम वहां केवल दोपहर के भोजन के लिए लिए जा रहे है. हमारी आरम्भिक इच्छा भी दरअसल यहाँ थी.
"तब तो ठीक है" उसने कहा-"क्योंकि उस मकान में भूतवासा है."
मेरी पत्नी और मैं, दिन-दिहाड़े की प्रेत-छायाओं में विश्वास नहीं करते, इसलिए उसके उस अंधविश्वास पर हंस दिए. पर हमारे दोनों बेटे, जो तब क्रमश नौ और सात वर्ष के थे, किसी जीवित भूत से मिल पाने की कल्पना-मात्र से रोमांचित हो उठे. मिग्युल औटिरो सिल्वा, जो सुरुचिपूर्ण मेजबान और भोजनपुर्सी में दक्ष थे, तथा साथ ही साथ अच्छे लेखक भी, कभी न भुलाये जा सकने भोजन के साथ हमारा इन्तजार कर रहे थे, क्योंकि हमें पहुँच पाने में जा ही देर हो गयी थी, इस लिए खाने की मेज पर बैठने से पहले हमें कैसल का भीतरी भाग देख पाने का मौका नहीं मिला. किन्तु इस भवन की दिखावट में डरने जैसा कुछ नहीं था. हमारे भीतर जो थोडी-बहुत व्याकुलता थी भी, वह फूलों से भरे टैरेस में खाना खाती बार पूरे शहर का नज़ारा देखने पर काफूर हो गयी थी. यह विश्वास कर पाना कठिन लग रहा था कि इतने सारे अनन्त गुणवान लोग उस पहाड़ी पर पैदा हो चुके थे, जो यूँ तो भवनों की भीड़ से अंटी पड़ी थी, लेकिन जिसमें नब्बे हज़ार लोगों के रहने के लिए मुश्किल से ही प्रचुर जगह मौजूद थी. हालांकि, मिग्युल औटिरो सिल्वा ने अपने करिबाई विनोदी लहजे में हमें बताया कि उनमें से कोई भी औरेजो का सुप्रसिद्ध मूल बाशिंदा नहीं है.
"उनमें सबसे महान" उसने घोषणा की-"लुडविको था." इस प्रकार, किसी पारिवारिक नाम से रहित. लुडविको के बारे में खाती बार मिग्युल लगातार बताता रहा कि वह कलाओं और युद्ध का महान संयोजक था, जिसने अपनी समस्त वेदनाएं सँजोकर इस कैसल का निर्माण किया था. मिग्युल ने हमें लुडविको की अपार शक्ति, उसके संकटपूर्ण प्यार और उसकी डरावनी मौत से अवगत करवाया. उसने बताया कि कैसे लुडविको ने हार्दिक पागलपन के एक पल के दौर में अपनी पत्नी के सीने में, उसी बिस्तर पर छूरा भोंक दिया, जहाँ क्षण भर पहले वह उसके साथ प्यार करने में मुबितला था और फिर कैसे उसने अपने भयंकर शिकारी कुत्तों को खुद पर छोड़ दिया, जिन्होंने उसके शरीर के देखते-देखते चीथड़े कर डाले थे. मिग्युल ने पूरी गंभीरता के साथ हमें विश्वास दिलाया कि आधी रात के बाद लुडविको का भूत इस घर के अँधेरे में विचरता अपने प्यार के समाधिस्थल में शान्ति खोजने में प्रयासरत रहता है.
कैसल वास्तव में ही विशाल और उदासी से भरा था. पर दिन के उस उजाले में, जब पेट भरा था व मन एकदम शांत था, मिग्युल की यह कथा बहुत से उन मन- बहलावों में से एक प्रतीत हुई, जिनके साथ वह अपने मेहमानों का मनोरंजन किये दे रहा था. दोपहर की नींद के बाद हम बेहिचक और निडर होकर उस भव्य भवन के बयासी कमरों में विचरते रहे थे, जिन्होनें आने वाले हर नए मालिक के साथ असंख्य परिवर्तन भोग लिए थे. मिग्युल ने पहली मंजिल का तो कायाकल्प ही कर डाला था. वहां एक आधुनिकतम बेडरूम का निर्माण किया गया था. टहलने के लिए दालान और व्यायामशाला के अतिरिक्त फूलों से भरा एक टैरेस बनाया गया था, जहाँ हम दिन में भोजन खा चुके थे. सदियों से प्रचलित दूसरी कहानी उन चरित्र विहीन कमरों के बारे में थी, जो अलग-अलग वक़्त से सजे चले आ रहे थे, पर अब भाग्य के भरोसे पड़े थे. अंतिम मंजिल पर हमने एक ऐसा दर्शनीय कमरा देखा, जिसमें जैसे कभी कोई हिलजुल नहीं हुयी थी तथा बीतने वाले वक़्त का हर लम्हा वहां दौरा कर पाना भूल गया था-वह लुडविको के सोने का कमरा था. वह जादुई पल था. उसका बिस्तर ज्यों का त्यों पड़ा था. आरपार लगे परदे सोने के धागों से बुने हुए थे. बिस्तर की चादर पर बलिदान हुई उसकी प्रेमिका के खून के कड़े हो चुके धब्बे साफ दिख रहे थे. अंगीठी की जगह पर बर्फीली धुल पसरी पड़ी थी तथा वहां पड़ा लकडी का आखिरी लट्ठा पत्थरा चुका था. शास्त्रगाह अपने रंगविहीन शास्त्रों से अंटी थी तथा अपना समय पूरा न कर सकने वाले किसी अमूल्य चित्रकार के हाथ से बनी तैलीय कृति सुनहरी फ्रेम में जकड़ी पड़ी थी. पर मुझे जिस चीज़ ने अत्यधिक प्रभावित किया, वह पूरे बेडरूम में लटकी ताज़ा स्ट्राबेरी की अकथनीय सुगंध थी.
जस्कनी में गर्मी के दिन लंबे और धीमी गति से चलने वाले होते हैं, तथा रात नौ बजे तक क्षितिज पर ठहरा रहता है. कैसल की परिक्रमा पूरी करने तक पांच बज चुके थे. लेकिन मिग्युल ने हमें सन-फ्रांसिस्को के गिरिजाघर में पिरो-देला-फ्रांससिसका की दीवार चित्रकला दिखाने के लिए ले गया. तब हम वहां हवाघर में साये के नीचे बतियाते रहे और वापस जब हम अपने सूटकेस लेने आये तो एकबार फिर भोजन हमारा इन्तजार कर रहा था. इसलिए रुक जाना पड़ा.
आकाश में केवल एक तारा चमक रहा था और इसके नीचे हम खाने का आनंद उठा रहे थे, तभी नौकर हाथों में मशालें लिए रसोईघर से निकलकर ऊपर की मंजिलों में रौशनी करने के इरादे से जा रहे थे. मेज पर बैठे-बैठे हम जीने पर पागल घोडों की आवाजें, आपस में भिड पड़ते किवाडों और उदास कमरों में लुडविको की पुकारती ध्वनियाँ सुन रहे थे. वे ही थे, जिन्हें वहां सोने का दुष्ट विचार था. खुशगवार मिग्युल औटिरो सिल्वा उनकी हिम्मायत पर था और हमारे पास किसी भी सामाजिक साहस का स्पष्ट अभाव था, जिसके चलते हम उन्हें इनकार कर पाने में असमर्थ थे.
अपने आंतरिक भय के ठीक विपरीत हमें बहुत गहरी नींद आयी थी. मैं और मेरी पत्नी पहली मंजिल के बेडरूम में थे और दोनों बच्चे पास वाले दूसरे कमरे में. दोनों ही कमरे आधुनिक ढंग से सजे हुए थे और इनमें उदास हो सकने जैसी कोई बात नहीं थी. नींद के इन्तजार में पड़े-पड़े मैंने ड्राइंगरूम में बजते पेंडुलम की बारह आवाजें सुनी थी, और मुझे उस वक़्त उस बुजुर्ग महिला की चेतावनी भी याद आई थी. पर अब तक हम इतने थक चुके थे कि गहरी बेहिचक नींद में जा पहुंचे. मैं सुबह सात बजे जगा तो देखा खिड़की के बाहर बेलों के गुच्छे के पार सूरज अदभुत ढंग से चमक रहा था. मेरी पत्नी भी आनंद विभोर थी. "क्या बेवकूफी है" मैंने खुद से ही कहा-आज के इस समय में भी भूतों में विश्वास करते रहना."
तभी ताज़ा स्ट्राबेरी की खुशबू से अचानक हिल उठा. अंगीठी में बर्फीली राख, अंतिम पथरीला लकडी का लट्ठा तथा सुनहरे फ्रेम में जकडा उदासी तैलचित्र तीन शताब्दियों की दूरी से हमें ताक रहे थे. पिछली रात पहली मंजिल के जिस बेडरूम में हम सोये थे, इस वक़्त हम वहां नहीं थे, बल्कि लुडविको के बेडरूम में, उसके बिस्तर की चादर पर पड़े खून के अभिशप्त धब्बों के ऊपर थे, जिसके चारों और सोने के धागों से जड़े व धुल भरे परदे लहरा रहे थे तथा बिस्तर की चादर गर्म खून से सनी हुई थी.
(अनुवाद: राजकुमार राकेश)
ओरेजो में हम दोपहर से कुछ ही देर पहले पहुंचे थे. रेनेसां कैसल, जिसे वेनजुएला के लेखक मिग्युल औटिरो सिल्वा ने तुस्किन के देहात के एक आदर्श कोने में खरीद रखा है, को तलाश करने में दो से ज्यादा घंटे से ज्यादा का समय गँवा दिया. वह अगस्त माह के आरम्भ में की जलती व आकुलाह्ट भरी दोपहरी थी. गलियां सैलानियों से अटी पड़ी थी, लेकिन उनमें ऐसा कोई व्यक्ति तलाश कर पाना कठिन था जो उस भवन से परिचित हो. कुछ असफल कोशिशों के बाद हम कार में जा बैठे और सफेदे के वृक्षों से घिरी एक सड़क पर चलते हुए शहर से बाहर निकल आए. कैसल को चिन्हे बिना हम चलते जा रहे थे, तभी एक बुजुर्ग महिला हमें उसका ठीक ठीक पता बता दिया. हमें अलविदा कहने से पहले उसने पूछा कि हम वहां केवल दोपहर के भोजन के हमने जवाब दिया कि हम वहां केवल दोपहर के भोजन के लिए लिए जा रहे है. हमारी आरम्भिक इच्छा भी दरअसल यहाँ थी.
"तब तो ठीक है" उसने कहा-"क्योंकि उस मकान में भूतवासा है."
मेरी पत्नी और मैं, दिन-दिहाड़े की प्रेत-छायाओं में विश्वास नहीं करते, इसलिए उसके उस अंधविश्वास पर हंस दिए. पर हमारे दोनों बेटे, जो तब क्रमश नौ और सात वर्ष के थे, किसी जीवित भूत से मिल पाने की कल्पना-मात्र से रोमांचित हो उठे. मिग्युल औटिरो सिल्वा, जो सुरुचिपूर्ण मेजबान और भोजनपुर्सी में दक्ष थे, तथा साथ ही साथ अच्छे लेखक भी, कभी न भुलाये जा सकने भोजन के साथ हमारा इन्तजार कर रहे थे, क्योंकि हमें पहुँच पाने में जा ही देर हो गयी थी, इस लिए खाने की मेज पर बैठने से पहले हमें कैसल का भीतरी भाग देख पाने का मौका नहीं मिला. किन्तु इस भवन की दिखावट में डरने जैसा कुछ नहीं था. हमारे भीतर जो थोडी-बहुत व्याकुलता थी भी, वह फूलों से भरे टैरेस में खाना खाती बार पूरे शहर का नज़ारा देखने पर काफूर हो गयी थी. यह विश्वास कर पाना कठिन लग रहा था कि इतने सारे अनन्त गुणवान लोग उस पहाड़ी पर पैदा हो चुके थे, जो यूँ तो भवनों की भीड़ से अंटी पड़ी थी, लेकिन जिसमें नब्बे हज़ार लोगों के रहने के लिए मुश्किल से ही प्रचुर जगह मौजूद थी. हालांकि, मिग्युल औटिरो सिल्वा ने अपने करिबाई विनोदी लहजे में हमें बताया कि उनमें से कोई भी औरेजो का सुप्रसिद्ध मूल बाशिंदा नहीं है.
"उनमें सबसे महान" उसने घोषणा की-"लुडविको था." इस प्रकार, किसी पारिवारिक नाम से रहित. लुडविको के बारे में खाती बार मिग्युल लगातार बताता रहा कि वह कलाओं और युद्ध का महान संयोजक था, जिसने अपनी समस्त वेदनाएं सँजोकर इस कैसल का निर्माण किया था. मिग्युल ने हमें लुडविको की अपार शक्ति, उसके संकटपूर्ण प्यार और उसकी डरावनी मौत से अवगत करवाया. उसने बताया कि कैसे लुडविको ने हार्दिक पागलपन के एक पल के दौर में अपनी पत्नी के सीने में, उसी बिस्तर पर छूरा भोंक दिया, जहाँ क्षण भर पहले वह उसके साथ प्यार करने में मुबितला था और फिर कैसे उसने अपने भयंकर शिकारी कुत्तों को खुद पर छोड़ दिया, जिन्होंने उसके शरीर के देखते-देखते चीथड़े कर डाले थे. मिग्युल ने पूरी गंभीरता के साथ हमें विश्वास दिलाया कि आधी रात के बाद लुडविको का भूत इस घर के अँधेरे में विचरता अपने प्यार के समाधिस्थल में शान्ति खोजने में प्रयासरत रहता है.
कैसल वास्तव में ही विशाल और उदासी से भरा था. पर दिन के उस उजाले में, जब पेट भरा था व मन एकदम शांत था, मिग्युल की यह कथा बहुत से उन मन- बहलावों में से एक प्रतीत हुई, जिनके साथ वह अपने मेहमानों का मनोरंजन किये दे रहा था. दोपहर की नींद के बाद हम बेहिचक और निडर होकर उस भव्य भवन के बयासी कमरों में विचरते रहे थे, जिन्होनें आने वाले हर नए मालिक के साथ असंख्य परिवर्तन भोग लिए थे. मिग्युल ने पहली मंजिल का तो कायाकल्प ही कर डाला था. वहां एक आधुनिकतम बेडरूम का निर्माण किया गया था. टहलने के लिए दालान और व्यायामशाला के अतिरिक्त फूलों से भरा एक टैरेस बनाया गया था, जहाँ हम दिन में भोजन खा चुके थे. सदियों से प्रचलित दूसरी कहानी उन चरित्र विहीन कमरों के बारे में थी, जो अलग-अलग वक़्त से सजे चले आ रहे थे, पर अब भाग्य के भरोसे पड़े थे. अंतिम मंजिल पर हमने एक ऐसा दर्शनीय कमरा देखा, जिसमें जैसे कभी कोई हिलजुल नहीं हुयी थी तथा बीतने वाले वक़्त का हर लम्हा वहां दौरा कर पाना भूल गया था-वह लुडविको के सोने का कमरा था. वह जादुई पल था. उसका बिस्तर ज्यों का त्यों पड़ा था. आरपार लगे परदे सोने के धागों से बुने हुए थे. बिस्तर की चादर पर बलिदान हुई उसकी प्रेमिका के खून के कड़े हो चुके धब्बे साफ दिख रहे थे. अंगीठी की जगह पर बर्फीली धुल पसरी पड़ी थी तथा वहां पड़ा लकडी का आखिरी लट्ठा पत्थरा चुका था. शास्त्रगाह अपने रंगविहीन शास्त्रों से अंटी थी तथा अपना समय पूरा न कर सकने वाले किसी अमूल्य चित्रकार के हाथ से बनी तैलीय कृति सुनहरी फ्रेम में जकड़ी पड़ी थी. पर मुझे जिस चीज़ ने अत्यधिक प्रभावित किया, वह पूरे बेडरूम में लटकी ताज़ा स्ट्राबेरी की अकथनीय सुगंध थी.
जस्कनी में गर्मी के दिन लंबे और धीमी गति से चलने वाले होते हैं, तथा रात नौ बजे तक क्षितिज पर ठहरा रहता है. कैसल की परिक्रमा पूरी करने तक पांच बज चुके थे. लेकिन मिग्युल ने हमें सन-फ्रांसिस्को के गिरिजाघर में पिरो-देला-फ्रांससिसका की दीवार चित्रकला दिखाने के लिए ले गया. तब हम वहां हवाघर में साये के नीचे बतियाते रहे और वापस जब हम अपने सूटकेस लेने आये तो एकबार फिर भोजन हमारा इन्तजार कर रहा था. इसलिए रुक जाना पड़ा.
आकाश में केवल एक तारा चमक रहा था और इसके नीचे हम खाने का आनंद उठा रहे थे, तभी नौकर हाथों में मशालें लिए रसोईघर से निकलकर ऊपर की मंजिलों में रौशनी करने के इरादे से जा रहे थे. मेज पर बैठे-बैठे हम जीने पर पागल घोडों की आवाजें, आपस में भिड पड़ते किवाडों और उदास कमरों में लुडविको की पुकारती ध्वनियाँ सुन रहे थे. वे ही थे, जिन्हें वहां सोने का दुष्ट विचार था. खुशगवार मिग्युल औटिरो सिल्वा उनकी हिम्मायत पर था और हमारे पास किसी भी सामाजिक साहस का स्पष्ट अभाव था, जिसके चलते हम उन्हें इनकार कर पाने में असमर्थ थे.
अपने आंतरिक भय के ठीक विपरीत हमें बहुत गहरी नींद आयी थी. मैं और मेरी पत्नी पहली मंजिल के बेडरूम में थे और दोनों बच्चे पास वाले दूसरे कमरे में. दोनों ही कमरे आधुनिक ढंग से सजे हुए थे और इनमें उदास हो सकने जैसी कोई बात नहीं थी. नींद के इन्तजार में पड़े-पड़े मैंने ड्राइंगरूम में बजते पेंडुलम की बारह आवाजें सुनी थी, और मुझे उस वक़्त उस बुजुर्ग महिला की चेतावनी भी याद आई थी. पर अब तक हम इतने थक चुके थे कि गहरी बेहिचक नींद में जा पहुंचे. मैं सुबह सात बजे जगा तो देखा खिड़की के बाहर बेलों के गुच्छे के पार सूरज अदभुत ढंग से चमक रहा था. मेरी पत्नी भी आनंद विभोर थी. "क्या बेवकूफी है" मैंने खुद से ही कहा-आज के इस समय में भी भूतों में विश्वास करते रहना."
तभी ताज़ा स्ट्राबेरी की खुशबू से अचानक हिल उठा. अंगीठी में बर्फीली राख, अंतिम पथरीला लकडी का लट्ठा तथा सुनहरे फ्रेम में जकडा उदासी तैलचित्र तीन शताब्दियों की दूरी से हमें ताक रहे थे. पिछली रात पहली मंजिल के जिस बेडरूम में हम सोये थे, इस वक़्त हम वहां नहीं थे, बल्कि लुडविको के बेडरूम में, उसके बिस्तर की चादर पर पड़े खून के अभिशप्त धब्बों के ऊपर थे, जिसके चारों और सोने के धागों से जड़े व धुल भरे परदे लहरा रहे थे तथा बिस्तर की चादर गर्म खून से सनी हुई थी.
पीलीभीत.
बस देखिये और इंतज़ार कीजिये. क्या मालूम पुराने गुजरात की तरह का नया उत्तर प्रदेश बन ही जाये. एक और बुरे दिन का इंतज़ार इतना ही भयावह होता है.
Saturday, March 28, 2009
पतलियों और मुंह के बीच
यह मेरा पहला कहानी संग्रह था, जो दिल्ली के एक प्रकाशक साहित्यानिधि द्वारा 1989में छापा गया था। इसमें शुरूआती दौर की बारह कहानियां थीं। अब तो ख़ुद को ही यह बहुत पुरानी बात लगती है, इसलिए इस पूरे संग्रह को मैं अब नए सिरे से लिखकर, नए रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूँ। भले ही यह कहानियां वे ही रहें जो वे थीं, लेकिन उनको नए सिरे से कहने की कवायद अदभुत अनुभव देती है। निश्चय ही में चाहूँगा अब नए रूप में यह किसी नए प्रकाशक द्वारा छापा जाए। यह एक पुरानी किताब का वापस लौटना होगा, जो किसी भी लेखक के लिए बेहद ताजगी से भरा अनुभव है।
Saturday, March 21, 2009
गुलामी जब अच्छी लगने लगती है
इराक के आभासी शासकों को अमेरिकी गुलामी अच्छी ही नहीं लगने लगी है, बल्कि अब तो उन्हें उसमें आनंद भी आने लगा है। निश्चय ही वह ख़राब वक्त होता है जब एक सभ्यता को गुलामी ख़राब नहीं लगती, लेकिन सबसे ख़राब वक्त वह होता है जब उसे गुलामी अच्छी लगने लगती है। वैसे किसी भी सभ्यता के आम जन को गुलामी कभी अच्छी नहीं लगती, इसलिए ही वह हर सत्ता का विरोध करने के लिए मजबूर होता है, लेकिन उसके ऊपर जो सत्ताएं विराजमान होती हैं उन्हें एक वक्त में गुलामी ख़राब नहीं लगती, और एक दूसरे वक्त में यह उन्हें अच्छी लगने लगती है। आमजन के लाये यही सबसे बुरा वक्त होता है। इसे वक्त में ही उसके ऊपर थोंपी गयी गुलामी की तमाम प्रताड़नाएं उसकी सामान्य जिन्दगी पर कहर ढा रही होती हैं। इराकी समाज आज वक्त के इसी बिन्दु पर आ खडा हुआ है। पूरा संसार जानता है इस समय इराक पर अमेरिका का कब्ज़ा है और वहां की सबसे ऊँची दिखने वाली कुर्सियों पर जो तथाकथित इराकी बैठे दिखते हैं, उन्हें अमेरिका की इस गुलामी का आनंद ऐसा फील गुड दे रहा है जैसे वे सचमुच के ही शासकों हो गए हों। ऐसे ही इन आभासी शासकों की एक अदालत ने मुन्तज़र अल जैदी को तीन साल कैद की सज़ा सुनाई है। ऐसी ही एक अदालत ने सद्दाम हुसैन को फाँसी देने का हुकुम सुनाया था। असल में यह सारे आदेश अमेरिका के हैं, इराक वाले जो इन्हें देते हुए दिख रहें हैं उनकी पीठ पर अमेरिकी पिस्तौल की नोकें हैं। सच में मुझे तो मुन्तज़र अल जैदी से ईर्ष्या है। जो मौका उसे मिला वह हर किसी को नसीब नहीं हो सकता कि इतना पास से वह अपने पैर के जुत्तों को उस क्रूर, अमानवीय और हत्यारे राष्ट्रपति जार्ज बुश के गंदे चेहरे पर फेंककर , अपना निजी ही नहीं, बल्कि पूरी इराकी जनता के आक्रोश को वाणी दे सका, वरना इस संसार के अरबों लोग अपना जूते उसके चेहरे पर कहाँ मार पायेंगे। जिस क्रूर व्यक्ति के साथ इस युवा पत्रकार ने यह मुमकिन किया, उसकी अमानवीयताओं का खौफ दुनिया के बड़े से बड़े फन्ने खान शासकों के दिलों में ऐसा घर किए हुए है कि उसका नाम सुनते ही इन सब के कलेजे कांपने लगते हैं, वे सब तो उसकी चरण पादुकाओं को धो धो कर पीते हुए अपनी गुलामी का आनंद लेते हुए झूमते रहते हैं। सज़ा तो करोड़ों आदमियों के हत्यारे को मिलनी चाहिए , पर मिलती है मुन्तज़र अल जैदी जैसे आज़ादी के परवानों को। हर युग में यही हुआ है। भगत सिंह कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं है।
Tuesday, March 17, 2009
कालाबकरा
इन दिनों में अपने नए उपन्यास कालाबकरा पर काम कर रहा हूँ। यह
भारतीय जीवन की तीन पीढियों की कथा है, जिसमें एक से ज्यादा
मुख्य पात्र हैं। इसका मूल परिचय फिलहाल तो इतना भर हो सकता है कि
जो भी आवाज़ कही जायेगी वह सुनी जरूर जाएगी, इसलिए भी,
और इसलिए भी कि हर सामान्य स्थिति में जो होता है वही इसमें है,
इसलिए इस उपन्यास के पात्र और घटनाएं उतना ही सच और उतना ही
झूठ हैं, जितना कि उन्हें एक औपन्यासिक कृति में होना चाहिए।
Thursday, March 12, 2009
किताबों की दुनिया
किताबों की दुनिया का सच समझ पाने के वास्ते हमें उस वक़त में लौटना पड़ेगा जब किताब आतंक की तरह हमारा पीछा करती थी, संसार के सारे धर्मग्रन्थ इसी आतंक का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि किताबें ज्ञान का सबसे बड़ा मध्यम हैं, और इसी की तलाश में आदमी दर दर भटकता ही और यही इनकी खूबसूरती है। मुझे बर्टन रसल कि एक किताब अनार्मड विक्टरी की जरूरत महसूस हुई तो मैंने खुद और अपने दोस्तों के माध्यम से पूरे भारत में इस किताब कि तलाश करवाई पर यह पूरी जद्दोजहद के बाद मिली शिमला के अडवांस स्टडी इंस्टीट्यूट में , वह भी लड़ झगड़ कर, तब मालूम पड़ा कि किताब को पाने का सच क्या है।
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